Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 15
________________ मूल्यों को लोक में स्थापित करना चाहते हैं, उनके लिए प्रशंसा न मिलने पर भी वे उनको स्थापित करने के लिए संघर्ष करते रहते हैं (92) । यद्यपि महापुरुष अपने को सम्मान से अलग कर लेते हैं, फिर भी उनकी कीर्ति की जरें गहरी होती जाती हैं (94)। .. उपयुक्त लोकानुभूतियों के अतिरिक्त वापतिराज की कुछ छुट-पुट अनुभूतियां भी है। वे कहते हैं जिनके हृदय काव्य-तस्व के रसिक होते हैं उनके लिए निर्धनता में भी कई प्रकार के सुख होते हैं. और वैभव में भी कई प्रकार के दुःख होते हैं (3)। थोड़ी लक्ष्मी उपभोग की जाती हुई शोभती है, पर अधूरी विद्या हास्यास्पद होती है (4)। कवियों की वाणियों के कारण ही यह जगत हर्ष पौर शोकमय दिखाई देता है (1)। बाकपतिराज कहते है कि कुछ पर ऐसे होते हैं जहाँ केवल नोकर दुष्ट होता है, कुछ घर ऐसे होते हैं जहां केवल मालिक दुष्ट होता है, तथा कुछ पर ऐसे होते हैं जहाँ मालिक पोर नोकर दोनों दुष्ट होते हैं (22)। वास्तव में घर तो ये होते हैं जहां सभी को पूर्ण संतोष मिलता है (54)। इस जगत में कुछ लोग प्रशंसा प्राप्त नहीं करते हैं तथा कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रशंसा से परे होते हैं । यहाँ प्रशसा तो प्रशंसातीत तथा जघन्य मनुष्यों के बीच में स्थित मनुष्यों की ही होती है (51)। अध्यात्मवाद की सीढ़ी पर पढ़कर वापतिराज कहते हैं कि सांसारिक सुखों को छोड़कर जो सुख हैं वे ही वास्तव में सुख हैं (68) | सांसा. रिक सुखों में प्रासक्ति होने के कारण ही दुःख अधिक उम्र लगते हैं (69) । यदि कोई सांसारिक सुखों से अपने को दूर भी करले, तो भी चित्त को ये सुख पाकर्षित करते रहते हैं। इन सुखों को त्यागना प्रत्यन्त कठिन है (70)। ... लोकानुभूतियों के उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मउडबहो में वाक्पतिराज ने जीवन के मूल्यात्मक पक्ष का सूक्ष्मता से अवलोकन किया है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह पयन (बापतिराज की लोकानुभूति) जापतिराषाको (xiv) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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