Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 9
________________ वैराग्यशतक अर्थ : रोगों से आक्रान्त यह जीव जल बिन मछली की भाँति तड़पता है, तब सभी स्वजन उसे रोग से पीड़ित देखते हैं फिर भी कोई भी उस वेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता है ॥२०॥ मा जाणसि जीव ! तुमं पुत्त कलत्ताइ मज्झ सुहहेउ। निउणं बंधणमेयं, संसारे संसरंताणं ॥२१॥ अर्थ : हे जीव ! तू यह मत मान ले कि इस संसार में पुत्र, स्त्री आदि मुझे सुख के कारण बनेंगे । क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को पुत्र-स्त्री आदि तीव्र बंधन के ही कारण बनते हैं ॥२१॥ जणणी जायइ जाया, जाया माया पिया य पुत्तो य । अणवत्था संसारे, कम्मवसा सव्वजीवाणं ॥२२॥ अर्थ : इस संसार में कर्म की पराधीनता के कारण सभी जीवों की ऐसी अनवस्था है कि माता मरकर पत्नी बनती है, पत्नी मरकर माता बनती है और पिता मरकर पुत्र बनता है ॥२२॥ न सा जाइ न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुया जत्थ, सव्वे जीवा अणंतसो ॥२३॥ अर्थ : इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कुल नहीं, जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे और मरे न हों ॥२३॥

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