Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ वैराग्यशतक ले जाती है । उस समय माता-पिता, भाई आदि कोई सहायक नहीं होते हैं ॥४३॥ जीअं जलबिंदु समं, संपत्तीओ तरंगलोलाओ। सुमिणयसमं च पिम्मं, जं जाणसु तं करेज्जासु ॥४४॥ अर्थ : यह जीवन जलबिंदु के समान है। सारी संपत्तियाँ जल की तरंग की तरह चंचल हैं और स्वजनों का स्नेह स्वप्न के समान है, अतः अब जैसा जानो, वैसा करो ॥४४॥ संझराग जल बुब्बुओवमे, जीविए य जलबिंदुचंचले। जुव्वणे य नइवेग संनिभे, पाव जीव ! किमियं न बुज्झसे ? ॥४५॥ अर्थ : संध्या के समान राग, पानी के परपोटे और जलबिंदु के समान यह जीवन चंचल है और नदी के वेग के समान यह यौवन है। हे पापी जीव ! फिर भी तू क्यों बोध नहीं पाता है ? ॥४५॥ अन्नत्थ सुआ अन्नत्थ गेहिणी परियणो वि अन्नत्थ । भूयबलिव्व कुटुंब, पक्खितं हयकयंतेण ॥४६॥ अर्थ : अहो ! निंदनीय ऐसे कृतान्त ने भूत को फेंकी गई बलि की तरह पुत्र को अन्यत्र, पत्नी को अन्यत्र और परिजनों को अन्यत्र, इस प्रकार पूरे परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया है ॥४६॥

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