Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 22
________________ वैराग्यशतक अर्थ : हे जीव ! सुनो ! चंचल स्वभाववाले इन बाह्य पदार्थों और नौ प्रकार के परिग्रह के जाल को यहीं छोड़कर तुझे जाना है। संसार में यह सब इन्द्रजाल के समान है ॥७०॥ पिय पुत्त मित्तघर घरणिजाय, इहलोइअ सव्व नियसुह सहाय । नवि अस्थि कोइ तुह सरणि मुक्ख, इक्कल्लु सहसि तिरिनिरय दुक्ख ॥७१॥ अर्थ : हे मूर्ख ! इस जगत् में पिता, पुत्र, मित्र, पत्नी आदि का समूह अपने-अपने सुख को शोधने के स्वभाव वाला है। तेरे लिए कोई शरण रूप नहीं है। तिर्यंच और नरकगति में तू अकेला ही दुःखों को सहन करेगा ॥७१॥ कुसग्गे जह ओसबिंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुआण जीवि, समयं गोयम ! मा पमायए ॥७२॥ अर्थ : घास के अग्र भाग पर रहा जलबिंदु अल्पकाल के लिए रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अल्पकाल के लिए है। अतः हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद मत कर ॥७२॥ संबुज्झह किं न बुज्झह ? संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा। नो हु उवणमंति राइओ, नो सुलहं पुणरवि जीवियं ॥७३॥ अर्थ : तुम बोध पाओ ! तुम्हें बोध क्यों नहीं होता है ? वास्तव में परलोक में बोधि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। जिस

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