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इन्द्रिय पराजय शतक सच्चं सुअं पि सीलं, विन्नाणं तह तवं पि वेरग्गं । वच्चइ खणेण सव्वं, विसयवसेणं जइणं वि ॥८१॥
अर्थ : विषयों के वश होने से साधु के भी सत्य, श्रुत, शील, विज्ञान और वैराग्य क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं ॥८१।। रे जीव ! स मइकप्पिय, निमेस सुहलालसो कहं मूढ । सासय सुहमसमतमं हारसि, ससिसोयरं च जसं ॥८२॥
अर्थ : हे जीव ! बुद्धि से कल्पित और निमेष (आँख की पलक) मात्र रहनेवाले विषयसुख में आसक्त होकर अनुपम और शाश्वत मोक्षसुख को और चंद्र समान उज्ज्वल यश को क्यों हार जाता है ? ॥८२॥ पज्जलिओ विसयग्गी, चरित्तसारं डहिज्ज कसिणं पि । सम्मत्तं पिअ विराहिय, अणंत संसारिअं कुज्जा ॥८३॥
अर्थ : प्रज्वलित हुई विषय रूपी अग्नि समस्त चारित्र के सार को भी जलाकर भस्मीभूत कर देती है । अरे ! सम्यक्त्व की भी विराधना कराकर आत्मा को अनंत संसारी बना देती है ॥८३॥ भीसण भवकांतारे, विसमा जीवाण विसयतिण्हाओ। जीए नडिआ चउदसपुव्वी वि रुलंति हु निग्गोए ॥८४॥
अर्थ : भीषण इस भव-जंगल में जीवों की विषयतृष्णा बड़ी विचित्र है जिससे नचाए हुए चौदह पूर्वी भी निगोद में दःखी होते हैं ॥८४॥