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इन्द्रिय पराजय शतक जह जह दोसा विरमइ, जह जह विसएहिं होइ वेरग्गं । तह तह विन्नायव्वं, आसन्नं से य परमपयं ॥१७॥
अर्थ : ज्यों ज्यों रागादि दोष विराम पाते हैं, ज्यों-ज्यों विषयों से वैराग्य होता है, त्यों त्यों समझना चाहिए कि उस व्यक्ति का परमपद नजदीक है ॥९७।।
दुक्करमेएहिं कयं जेहिं, समत्थेहि जुव्वणत्थेहिं । भग्गं इंदिअसिन्नं, धिइपायारं विलग्गेहिं ॥९८॥
अर्थ : शरीर से समर्थ और यौवन वय होने पर भी जिन पुरुषों ने धैर्यरूप किले का आश्रय लेकर इन्द्रिय रूपी सैन्य को नष्ट कर दिया है। सचमुच...उन्होंने दुष्कर कार्य किया है ॥९८॥ ते धन्ना ताण नमो, दासोहं ताण संजमधराणं । अद्धच्छि-पिच्छरीओ, जाण न हिअए खुडुक्कंति ॥१९॥
अर्थ : वे पुरुष धन्य हैं उनको नमस्कार हो, उन संयमधरों का मैं दास हूँ जिनके हृदय में कटाक्ष से देखनेवाली स्त्रियाँ लेश मात्र भी खटकती नहीं हैं ॥९९।। किं बहणा जइ वंछसि, जीव तुमं सासयं सुहं अरुअं। ता पिअसु विसय विमुहो, संवेगरसायणं निच्चं ॥१००॥
अर्थ : ज्यादा क्या कहना ? हे जीव ! यदि तुम निराबाध शाश्वत सुख पाना चाहते हो तो विषयों से विमुख होकर हमेशा संवेग रूपी रसायन का पान करो ॥१००॥