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इन्द्रिय पराजय शतक सभी सुख हैं ॥८८॥
केवल दुहनिम्मविए, पडिओ संसारसायरे जीवो। जं अणुहवइ किलेसं, तं आसवहेउअं सव्वं ॥८९॥
अर्थ : केवल दुःख से निर्मित इस संसार सागर में जीव जिन दुःखों का अनुभव करता है, उन सभी दुःखों का मुख्य कारण आस्रव ही है ॥८९॥ ही संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंडिअं जालं । बज्झंति जत्थ मूढा, मणुआ तिरिआ सुरा असुरा ॥१०॥
अर्थ : दुःख की बात है कि विधाता ने स्त्री के रूप में इस संसार में एक ऐसा जाल रचा है, जिसमें मोह से मूढ़ बने मनुष्य, तिर्यंच, देव और दानव सभी फँस जाते हैं ॥९०॥ विसमा विसयभुअंगा, जेहिं डसिया जिआ भववणंमि । कीसंति दुहग्गीहिं, चुलसीई जोणिलक्खेसु ॥११॥
अर्थ : विषय रूपी सर्प बड़े भयंकर हैं जिनसे डसे हुए जीव चौरासी लाख जीव योनि रूप इस भव वन में दुःख रूपी अग्नि से क्लेश पाते हैं ॥९१॥
संसारचार गिम्हे, विसयकुवाएण लुक्किया जीवा । हिअमहिअं अमुणंताऽणुहवंति अणंतदुक्खाइं ॥१२॥
अर्थ : संसार की जेल Jail में विषय रूपी लू से पीड़ित हित-अहित को नहीं जानने वाला यह जीव अनंत दुःखों का अनुभव करता है ॥१२॥