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इन्द्रिय पराजय शतक
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हा विसमा हा विसमा विसया, जीवाण जेहि पडिबद्धा । हिंडंति भवसमुद्दे, अणंतदुखाइं पावंता ॥८५॥
अर्थ : बहुत ही खेद की बात है, दुःख की बात है कि ये विषय अत्यन्त ही विषम हैं, जिनसे जुड़े हुए जीव संसार समुद्र में भटकते हैं और अनंत दुःख प्राप्त करते हैं ॥८५॥ माइंदजाल चवला, विसया जीवाण विज्जुतेअसमा । खदिट्ठा खणनट्ठा ता, तेसिं को हु पडिबंधो ॥ ८६ ॥
अर्थ : जीवों के लिए ये विषय माया से रचे इन्द्रजाल की भाँति चपल हैं और आकाश में चमकती बीजली की भाँति क्षण में दिखाई देनेवाले और क्षण में नष्ट हो जाने के स्वभाववाले, हैं, इस कारण उन विषयों में प्रतिबद्धताआसक्ति क्यों ? ॥८६॥
सत्तू विसं पिसाओ वेआलो, हुअवहो वि पज्जलिओ । तं न कुणइ जं कुविआ, कुणंति रागाइणो देहे ॥८७॥
अर्थ : शत्रु, विष, पिशाच, वेताल और प्रज्वलित अग्नि भी देह में जो नुकसान नहीं करते हैं, उससे भी अधिक नुकसान तीव्र बने राग आदि करते हैं ॥८७॥ जो रागाईण वसे, वसंमि जो सयल दुक्ख लक्खाणं । जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाइं ॥ ८८ ॥
अर्थ : जो रागादि के वश में है, वह सभी लाखों दुःखों के वश में है और रागादि जिसके वश में है, उसके वश में