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इन्द्रिय पराजय शतक
अर्थ : विषयों में आसक्त होकर जो मनुष्यपने को हारता है, वह गोशीर्ष चंदन और श्रीखण्ड को जलाने का काम करता है, ऐरावत हाथी को बेचकर बकरा खरीद रहा है और कल्पवृक्ष को उखाड़कर एरंड को बो रहा है ॥७७॥
अधुवं जीविअं नच्चा, सिद्धिमग्गं विआणिआ। विणिअट्टिज्ज भोगेसु आउं परिमियमप्पणो ॥७८॥
अर्थ : हे जीव ! जीवन को क्षणिक जानकर, मुक्तिमार्ग को समझकर और अपने परिमित आयुष्य को जानकर भोगों से विराम ले ! ॥७८॥ सिवमग्ग संठिआण वि,
जह दुज्जेआ जियाण पुण विसया । तह अन्नं किं पि जए,
दुज्जेअं नत्थि सयले वि ॥७९॥ अर्थ : मोक्षमार्ग में अच्छी तरह से रहे हुए जीवों के लिए भी ये विषय दुर्जेय हैं, इस कारण इस संसार में सबसे अधिक दुर्जेय दूसरा कोई नहीं है ॥७९॥
सविडंकुब्भडरुवा दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी । आयहियं चिंतंता, दूरयरेणं परिहरंति ॥८॥
अर्थ : उद्धत और अतिशय रूपवाली स्त्री नजर समक्ष आकर जब तक मन को मोहित न कर ले. तब तक आत्महित के इच्छुक उसका दूर से ही त्याग करते हैं ॥८०॥