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इन्द्रिय पराजय शतक आठ प्रकार के कर्मों की निर्जरा भी नहीं करता है ॥७४॥ किं तुमंधोसि किं वासि धत्तूरिओ,
अहव किं संनिवाएण आउरिओ। अमय सम धम्म जं विसं व अवमन्नसे,
विसयविस विसम अमयं व बहुमन्नसे ॥७५॥ अर्थ : हे आत्मा ! क्या तुम अंधी हो अथवा तुमने धतूरे का भक्षण किया है? अथवा संनिपात से ग्रस्त हो ! जिस कारण अमृत जैसे धर्म की अवगणना करते हो और विषय रूपी विष का अमृत की तरह बहुमान करते हो ? ॥७॥
तुज्झ तुह नाण-विन्नाण-गुणडम्बरो, जलण जालासु निवडंतु जिअ निब्भरो । पयइ वामेसु कामेसु जं रज्जसे, जेहि पुण पुण वि नरयानले पच्चसे ॥७६॥
अर्थ : हे जीव ! तुम्हारा तप, ज्ञान, विज्ञान और गुणों का समूह आग की ज्वाला में गिरे, क्योंकि मोक्षमार्ग के प्रतिकूल ऐसे काम में तुम खुश होते हो, जिसके फलस्वरूप तुम नरक रूप अग्नि में पकाए जाओगे ॥७६।।
दहइ गोसीस सिरिखंड-छारक्कए छगल-गहणट्ठमेरावणं । विक्कए कप्पतरु तोडि एरण्ड सो वावए, जुज्जि विसएहि मणुअत्तणं हारए ! ॥७७॥