Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 49
________________ ४८ इन्द्रिय पराजय शतक मरणे वि दीणवयणं, माणधरा जे नरा न जंपंति । ते वि हु कुणंति लल्लिं, बालाणं नेहगहगहिला ॥६७॥ अर्थ : अभिमान को धारण करनेवाले कई लोग मौत आने पर भी दीन वचन नहीं बोलते हैं, परन्तु वे भी स्नेह रूपी ग्रह से पागल बने हुए स्त्रियों से रंक की तरह प्रार्थना करते हैं ॥६७॥ सक्को वि नेव खंडइ, माहप्पमडुप्फुरं जए जेसिं । ते वि नरा नारीहिं, कराविया नियय दासत्तं ॥१८॥ अर्थ : इस दुनिया में जिन पुरुषों के माहात्म्य के गर्व को इन्द्र भी खण्डित नहीं कर सकता, ऐसे पुरुष भी नारी द्वारा दास बनाए जाते हैं ।।६८॥ जउनंदणो महप्पा, जिणभाया वयधरो चरमदेहो । रहनेमि राइमई-रायमईं कासि ही विसया ॥६९॥ अर्थ : यदुनंदन, महात्मा, नेमिनाथ प्रभु के छोटे भाई, व्रतधारी चरमशरीरी ऐसे रथनेमि ने भी राजीमती के विषय में रागबुद्धि की । वास्तव में ये विषय दुर्लंघ्य हैं ॥६९।। मयण पवणेण, जइ तारिसा वि सुरसेल निच्चला चलिआ। ता पक्क पत्त सत्ताण, इयर सत्ताण का वत्ता ? ॥७०॥ अर्थ : मेरु पर्वत के समान निश्चल मन वाले भी काम रूपी पवन से विचलित हो जाते हैं तो पके हुए पत्ते जैसे हीन सत्त्ववाले प्राणियों की क्या बात करें? ॥७०॥

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