Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 48
________________ इन्द्रिय पराजय शतक विसयवसट्टा जीवा, उब्भडरुवाइएस विविहेसु । भव सय सहस्स दुलहं, न मुणंति गयंपि नियजम्मं ॥६३॥ अर्थ : विविध उद्भट रूपों में आसक्त तथा विषयों की परतंत्रता से पीड़ित जीव लाखों जन्मों में दुर्लभ ऐसे अपने गये हुए जन्म को भी नहीं देखते हैं ॥६३॥ ४७ चिट्ठेति विसयविवसा, मुत्तुं लज्जंपि के वि गयसंका । न गणंति के वि मरणं, विसयंकुस सल्लिया जीवा ॥६४॥ I अर्थ : कई जीव नि:शंक और निर्लज्ज बनकर विषयों में आसक्त होकर रहते हैं । विषय रूपी अंकुश से शल्य वाले बने जीव मृत्यु को भी नहीं गिनते हैं ॥६४॥ विसयवसेणं जीवा, जिणधम्मं हारिऊण हा नरयं । वच्चंति जहा - चित्तय निवारिओ बंभदत्तनिवो ॥ ६५ ॥ अर्थ : दुःख की बात है कि विषय के वश बने हुए जीव जिनधर्म को हारकर नरक में चले जाते हैं, जैसे चित्रक मुनि के द्वारा रोकने पर भी ब्रह्मदत्त राजा मरकर नरक में गया ॥६५॥ धी धी ताण नराणं, जे जिणवयणामयं पि मोत्तूणं । चउ गइ विडंबणकरं, पिअंति विसयासवं घोरं ॥ ६६ ॥ अर्थ : उन पुरुषों को धिक्कार हो, जो जिनवचन रूपी अमृत को छोड़कर चार गति में विडंबना करानेवाली घोर विषय रूपी मदिरा का पान करते हैं ॥ ६६ ॥

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