Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 46
________________ इन्द्रिय पराजय शतक सुखकारक नहीं होता है ॥५५॥ हरिहर चउराणण, चंदसूरखंदाइणो वि जे देवा । नारीण किंकरतं, कुणंति धिद्धी विसयतिण्हा ॥५६॥ अर्थ : हरि, हर, ब्रह्मा, चंद्र, सूर्य तथा स्कंद आदि देव भी नारी का किंकरपना करते हैं। सचमुच, विषय तृष्णा को धिक्कार हो ॥५६॥ सीअं च उण्हं च सहति मूढा, इत्थीसु सत्ता अविवेअवंता । इलाइपुत्तव्व चयंति जाइ, जीअं च नासंति य रावणुव्व ॥५७॥ अर्थ : स्त्रियों में आसक्त ऐसे अविवेकी मूढ़ पुरुष ठंडी-गर्मी को सहन करते हैं । इलाचीपुत्र की तरह जाति का त्याग करते हैं और रावण की तरह जीवन का भी नाश करते हैं ॥५७॥ वुत्तूण वि जीवाणं, सुदुक्कराई ति पावचरियाई। भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥५८॥ अर्थ : जीवों का पाप चरित्र कहना भी अतिदुष्कर है। 'भयवं जा सा सा सा' यहाँ दृष्टान्त है ॥५८॥ जल लव तरलं जीअं, अथिरा लच्छी वि भंगुरो देहो । तुच्छा य कामभोगा, निबंधणं दुक्खलक्खाणं ॥५९॥ अर्थ : यह जीवन जल के बिंदु के समान चंचल है।

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