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इन्द्रिय पराजय शतक
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अर्थ : राग रहित आत्मा जिस सुख का अनुभव करती है, उस सुख का उन्हें ही पता होता है गंदगी में पड़े सूअर को देवलोक में रहे सुखों का बोध नहीं होता है ॥४८॥ जं अज्जवि जीवाणं, विसएस दुहासवेसु पडिबंधो । तं नज्जइ गुरुआण वि, अलंघणिज्जो महामोहो ॥ ४९ ॥
अर्थ : दुःखों को लानेवाले विषयों में आज भी जीवों को जो राग है, उससे पता चलता है कि महामोह को जीतना बड़ों के लिए भी कठिन है ॥ ४९ ॥
जे कामंधा जीवा, रमंति विसएसु ते विगयसंका । जे पुण जिणवयणरया, ते भीरु तेसु विरमंति ॥५०॥
अर्थ : जो कामांध पुरुष हैं, वे शंका रहित होकर विषयों में लीन होते हैं और जो जिनवचन में अनुरक्त हैं, वे भीरु होकर विषयों से विराम पाते हैं ॥५०॥
असुइ मुत्त- मल पवाहरुवयं, वंत-पित्त-वस-मज्ज फोफसं ।
मेअ - मंस - बहु- करंडयं,
चम्म-मित्त पच्छाइयं जुवइ अंगयं ॥ ५१ ॥
मंसं इमं मुत्त पुरीसमीसं, सिंघाण खेलाइअ - निज्झरतं ।
एअं अणिच्चं किमिआण वासं, पासं नराणं मइबाहिराणं ॥५२॥