Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ ४६ इन्द्रिय पराजय शतक लक्ष्मी भी अस्थिर है। देह नाशवन्त है। कामभोग भी तुच्छ है और लाखों दुःखों का कारण है ॥५९॥ नागो जहा पंकजलावसन्नो, दटुं थलं नाभिसमेइ तीरं। एवं जिआ कामगुणेसु गिद्धा, सुधम्म मग्गे न रया हवंति ॥६०॥ अर्थ : जिस प्रकार कीचड़ में फँसा हुआ हाथी तट को देखने पर भी तट को प्राप्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार कामभोगों में आसक्त बना हुआ जीव सद्धर्म के मार्ग में रत नहीं हो पाता है ॥६०॥ जह विट्ठ पुंज खुत्तो, किमी सुहं मन्नए सयाकालं । तह विसयासुइ रत्तो जीवो, वि मुणइ सुहं मूढो ॥६१॥ अर्थ : जिस प्रकार विष्ठा के ढेर में रहा कृमि हमेशा उसी में सुख मानता है, उसी प्रकार विषय रूपी अशुचि में पड़ा हुआ मूर्ख मनुष्य उसी में सुख मानता है ॥६१॥ मयरहरो व जलेहि, तह वि हु दुप्पूरओ इमो आया । विसया मिसंमि गिद्धो, भवे भवे वच्चइ न तत्तिं ॥६२॥ अर्थ : जिस प्रकार समुद्र जल से कभी तृप्त नहीं होता है, उसी प्रकार विषय रूपी आमिष (भोग्य वस्तु) में आसक्त जीव भव-भव में तृप्ति नहीं पाता है ॥६२।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58