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इन्द्रिय पराजय शतक तुम दृष्टि से ही दूर करो ॥४०॥ सिद्धंतजलहि पारंगओ वि, विजिइंदिओ वि सूरो वि । दढचित्तो वि छलिज्जइ, जुवइ पिसाईहिं खुड्डाहिं ॥४१॥
अर्थ : सिद्धान्त रूपी सागर को पार किया हुआ जितेन्द्रिय, शूरवीर और दृढ़चित्तवाला भी क्षुद्र ऐसी स्त्री रूपी पिशाचिनियों के द्वारा ठगा जाता है ॥४१॥ मयण नवणीय विलओ, जह जायइ जलण संनिहाणंमि । तह रमणि-संनिहाणे, विद्दवइ मणो मुणीणं पि ॥४२॥ ___ अर्थ : जिस प्रकार अग्नि के संपर्क से मोम और नवनीत (मक्खन) पिघल जाता है, उसी प्रकार स्त्री के संपर्क से मुनियों का मन भी पिघल जाता है ॥४२॥ नीयंगमाहिं सुपयोहराहिं, उप्पेच्छ-मंथरागईहिं। महिलाहि निमग्गाहिव, गिरिवर गुरुआ वि भिज्जंति ॥४३॥
अर्थ : नीचे जानेवाली, अच्छे पानी को धारण करनेवाली और मंथर गतिवाली नदी द्वारा बड़े पर्वत भी भेदे जाते हैं, उसी प्रकार नीच लोगों का संपर्क करनेवाली, सुन्दर स्तनवाली और ऊपर देख-मंथरगति से चलनेवाली स्त्रियाँ महापुरुषों के मन को भी भेद देती हैं ॥४३॥ विसयजलं मोहकलं, विलासबिब्बो अ जलयराइन्न । मयमयरं उत्तिन्ना, तारुण्ण महण्णवं धीरा ॥४४॥
अर्थ : विषय रूपी जल, मोह रूपी मधुर आवाज,