Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 40
________________ इन्द्रिय पराजय शतक तुम जानो ॥३२॥ इंदिय विसयपत्ता, पडंति संसारसायरे जीवा । पक्खि व्व छिन्नपंखा, सुसीलगुण पेहुणविहूणा ॥३३॥ अर्थ : कटे हुए पंखवाले पक्षी की तरह इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव संसार सागर में गिर जाते हैं ॥३२॥ न लहइ जहा लिहंतो, मुहल्लिअं अट्ठिअं जहा सुणओ। सोसइ तालुय रसियं, विलिहंतो मन्नए सुक्खं ॥३४॥ महिलाण कायसेवी न, लहइ किं चि वि सुहं तहा पुरिसो। सो मन्नए वराओ, सय काय परिस्समं सुक्खं ॥३५॥ __अर्थ : जिस प्रकार कुत्ता मुँह में रही हड्डी को जीभ से चाटते समय कुछ भी प्राप्त नहीं करता है, परन्तु अपने गले को सुखाता है और हड्डी के चबाने से उसके मसूड़ों में से खून निकलता है, उसी खून का स्वाद लेते हुए उसे सुख मानता है। उसी प्रकार स्त्रीओ के देहका भोग करने से पुरुष को कुछ भी सुख नहीं मिलता है, परन्तु वह बेचारा काया के परिश्रम को ही सुख मानता है ॥३४-३५॥ सट्ट वि मग्गिज्जंतो, कत्थवि कलीइ नत्थि जह सारो। इंदियविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ट वि गविटुं ॥३६॥ अर्थ : जिस प्रकार अच्छी तरह से शोध करने पर भी केले के स्कंध में कहीं सार दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय में भी विचार करने पर लेश भी सुख

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