Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 38
________________ ३७ इन्द्रिय पराजय शतक और दीर्घ काल तक दुःख देनेवाले हैं। जो क्षण अत्यन्त दुःख देनेवाले हैं और अल्प सुख देनेवाले हैं। संसार से मुक्त होने में दुश्मन समान-ये सारे काम-भोग अनर्थों की खान ही हैं ॥२५॥ सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी। कामग्गहो दुरप्पा, जेण भिभूअं जगं सव्वं ॥२६॥ अर्थ : काम नाम का विचित्र ग्रह, जिसने संपूर्ण विश्व को वश में किया है, जो सभी उन्मादों का उत्पत्ति स्थान है, महा उन्माद है और सभी दोषों को पैदा करने वाला है ॥२६।। जह कच्छुल्लो कच्छं, कंडुअमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति ॥२७॥ अर्थ : जिस प्रकार खुजली का रोगी खुजलाते समय दुःख को सुख रूप मानता है, उसी प्रकार मोह रूपी काम की खुजली से व्याकुल बना मनुष्य काम रूपी दुःख को भी सुख रूप मानता है ॥२७॥ सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुग्गइं ॥२८॥ अर्थ : कामभोग शल्य समान है ! कामभोग विष समान है। काम भोग की इच्छा करनेवाले जीव, कामभोग का भोग किये बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं ॥२८॥

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