Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 37
________________ इन्द्रिय पराजय शतक अर्थ : जिस प्रकार तृण और काष्ठ द्वारा अग्नि तथा हजारों नदियों द्वारा लवण समुद्र कभी तृप्त नहीं होता है, उसी प्रकार कामभोगों द्वारा यह जीव कभी तृप्त नहीं हो सकता है ॥२२॥ ३६ भुत्तूण वि भोगसुहं, सुर नर - खयरेसु पुण पमाएणं । पिज्जइ - नरएसु भेरव, कलकल तउ तंबपाणाई ॥ २३ ॥ अर्थ : प्रमाद से आसक्त होकर देव, मनुष्य और विद्याधरपने अनेक प्रकार के भोगसुखों को भोगता है, जिसके परिणामस्वरूप इस जीव को नरक में उबलते हुए भयंकर सीसे और तांबे के रस का पान करना पड़ता है ॥२३॥ को लोभेण न निहओ, कस्स न रमणीहिं भोलिअं हिअयं । को मच्चुणा न गहिओ, को गिद्धो नेव विसएहिं ॥ २४ ॥ अर्थ : इस जगत् में लोभ द्वारा कौन नहीं मारा गया ! स्त्रियों के द्वारा किसका हृदय न ठगा गया ! मृत्यु के द्वारा किसका ग्रहण नहीं हुआ और विषयों में कौन (आशक्त) नहीं बना! ॥२४॥ खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा अनिकाम सुक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्ख भूआ, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥२५॥ अर्थ : संसार के काम-सुख क्षण मात्र सुख देनेवाले हैं

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