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इन्द्रिय पराजय शतक
विसए अवइक्खंता, पडंति संसारसायरे घोरे । विसएस निराविक्खा, तरंति संसार कंतार ॥२९॥
अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाले जीव भयंकर संसार सागर में डूब जाते हैं, जबकि विषयों के प्रति निरपेक्ष रहनेवाले जीव संसार - अटवी को पार कर जाते हैं ||२९||
छलिआ अवइक्खता, निरावड़क्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे, निरावइक्खेण होअव्वं ॥३०॥
अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाले जीव ठगे गए हैं, जबकि जो विषयों से निरपेक्ष हैं, वे निर्विघ्नतया पार उतर गए हैं । अतः प्रवचन का सार यही है कि विषयों के प्रति निरपेक्ष बनना चाहिए ||३०|| विसयाविक्खो निवड, निरविक्खो तर दुत्तर भवोहं । देवी दीव समागय-भाउअजुअलेण दिट्टंतो ॥३१॥
अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाला संसार में डूबता है और विषयों से निरपेक्ष रहनेवाले संसार - सागर से पार उतर जाते हैं। देवी-द्वीप पर आए भ्रातृयुगल का यहाँ दृष्टान्त है ॥३१॥
जं अइतिक्खं दुक्खं, जं च सुहं उत्तमं तिलोयंमि । तं जाणसु विसयाणं, वुड्डिक्खय हेउअं सव्वं ॥३२॥ अर्थ : तीन लोक में जो अति दुःख है और जो उत्तम सुख है, वह विषयों की वृद्धि और क्षय के कारण है, ऐसा