Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 41
________________ ४० इन्द्रिय पराजय शतक दिखाई नहीं देता है ॥३६॥ सिंगार तरंगाए, विलासवेलाइ जुव्वणजलाए। के के जयंमि पुरिसा, नारी नईए न बुइंति ॥३७॥ अर्थ : शृंगार रूपी तरंगोंवाली, विलासरूपी ज्वार वाली, यौवनरूपी जलवाली, नारी रूपी नदी में कौन सा पुरुष डूबता नहीं है ॥३७॥ सोयसरी दुरिअदरी, कवडकुडी महिलिआ किलेसकरी । वयरविरोअण-अरणी,दुक्खखाणीसुक्खपडिवक्खा ॥३८॥ अर्थ : नारी शोक की नदी, पाप की गुफा, कपट का मंदिर, क्लेश उत्पन्न करनेवाली, वैर रूपी अग्नि के लिए अरणि काष्ठ समान, दुःख की खान और सुख की वैरिणी है॥३८॥ अमुणिअ मणपरिकम्मो, सम्मं को नाम नासिउं तरइ । वम्मह सर पसरोहे, दिट्ठिच्छोहे मयच्छीणं ॥३९॥ अर्थ : कामदेव के बाणों के समान स्त्रियों की दृष्टि से क्षोभ पाकर, स्त्री के मनोव्यापार को नहीं जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष भाग जाने में समर्थ है ? ॥३९॥ परिहरसु तओ तासिं, दिढि दिट्टीविसस्स व अहिस्स । जं रमणि नयणबाणा, चरित्तपाणे विणासंति ॥४०॥ अर्थ : इस कारण स्त्री के नयण-बाण चारित्र रूपी प्राणों का नाश करते हैं, अतः दृष्टिविष सर्प जैसी स्त्रियों को

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