Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 36
________________ इन्द्रिय पराजय शतक अर्थ : संसार रूपी चक्रवाल में मैंने सभी पुद्गलों को औदारिक आदि के रूप में ग्रहण किया है और औदारिक आदि के रूप में भोगा है, फिर भी मैं उनसे तृप्त नहीं हुआ हूँ॥१८॥ उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ। भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥१९॥ अर्थ : विषय भोग करनेवाले जीव को कर्म का बंध होता है, जो जीव विषयों का भोग नहीं करता है, वह कर्म के बंध से लिप्त नहीं होता है । भोगी जीव संसार में भटकता है और अभोगी जीव कर्म से मुक्त होता है ॥१९॥ अल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिआ कूडे, जो अल्लो सो विलग्गइ ॥२०॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा विरत्ता उ न लग्गति, जहा सुक्के अ गोलए ॥२१॥ अर्थ : मिट्टी के गीले और सूखे दो गोलों को दीवार पर फेंका गया, जो गीला था, वह दीवार पर चिपक गया और जो सूखा था, वह नहीं चिपका । इसी प्रकार दुर्बुद्धिवाले जो मनुष्य काम की लालसा वाले होते हैं, वे स्त्री आदि में लिपट जाते हैं और जो काम-भोगों से विरक्त होते हैं, वे शुष्क गोले की तरह स्त्री आदि में लिप्त नहीं होते हैं ।।२०-२१॥ तणकटेहिं व अग्गी, लवणसमुद्दो नई सहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥२२॥

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