Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 33
________________ इन्द्रिय पराजय शतक अर्थ : ये कामभोग भोगते समय मधुर हैं परन्तु किंपाक फल की तरह परिणाम में कटु हैं। खुजली के रोगी को खुजलाते समय सुख की बुद्धि होती है, जब कि वह परिणाम में तो दुःख ही देती है ॥७॥ मृगतृष्णा की तरह ये भोग मध्याह्न में अर्थात् यौवन काल में मिथ्यात्व के साथ प्रतारणा करने वाले हैं भोगने पर ये दुष्ट योनि में ले जानेवाले हैं। ये भोग महावैरी हैं ॥८॥ सक्को अग्गी निवारेउं, वारिणा जलिओ वि हु। सव्वोदहि जलेणा वि, कामग्गी दुन्निवारओ ॥९॥ अर्थ : अति भयंकर प्रज्वलित आग को भी पानी द्वारा बुझाया जा सकता है, परन्तु सभी समुद्रों के पानी से भी काम रूपी अग्नि को शान्त नहीं किया जा सकता है ॥९॥ विसमिव मुहंमि महुरा, परिणाम निकाम दारुणा विसया। कालमणंतं भुत्ता, अज्ज वि मुत्तुं न किं जुत्ता ॥१०॥ अर्थ : विषयुक्त भोजन की तरह ये विषयसुख प्रारम्भ में मधुर हैं, परन्तु परिणाम में तो अत्यन्त ही दारुण हैं । अनंतकाल तक इन विषयसुखों का भोग किया है, तो क्या अब भी वे छोड़ने योग्य नहीं हैं ॥१०॥ विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न याणइ जीवो । झूड कलुणं पच्छा, पत्तो नरयं महाघोरं ॥११॥ अर्थ : विषय रस रूपी मदिरा के पान से मदोन्मत्त

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