Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ इन्द्रिय पराजय शतक को खोखला बना देते हैं, उसी प्रकार इंद्रियों का गुलाम बना व्यक्ति अपने चारित्र को खोखला बना लेता है, अतः धर्म के अर्थी व्यक्ति को इंद्रियों को जीतने में प्रयत्नशील बनना चाहिए ॥४॥ जह कागिणीइ हेडं, कोडिं रयणाण हारए कोइ । तह तुच्छ विसयगिद्धा, जीवा हारंति सिद्धिसुहं ॥५॥ अर्थ : जिस प्रकार कोई मूर्ख व्यक्ति एक काकिणी रत्न को पाने के लिए करोड़ों रत्नों को हार जाता है, उसी प्रकार तुच्छ विषयसुखों में आसक्त बना हुआ जीव मोक्षसुख को हार जाता है ॥५॥ तिलमित्तं विसयसुहं, दुहं च गिरिराय सिंगतुंगयरं । भवकोडीहिं न निट्ठइ, जं जाणसु तं करिज्जासु ॥६॥ अर्थ : इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला विषयसुख तो नाम मात्र का है, जबकि उसके बदले में प्राप्त होने वाला दुःख तो मेरु पर्वत के शिखर जितना ऊँचा है, करोडों भवों द्वारा भी उस दुःख का अन्त आनेवाला नहीं है, अतः यह जानकर अब तुझे जो ठीक लगे, वह कर ! ॥६॥ भुंजंता महुरा विवागविरसा, किंपागतुल्ला इमे । कच्छुकंडुअणं व दुक्खजणया दाविति बुद्धि सुहं ॥७॥ मज्झण्हे मयतिण्हिअव्व सययं, मिच्छाभिसंधिप्पया । भुत्ता दिति कुजम्म जोणिगहणं, भोगा महावेरिणो ॥८॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58