Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 30
________________ वैराग्यशतक २९ चउगइऽणंतदुहानल-पलित्त भवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुमं, जिणवयणं अमियकुंडसमं ॥१०२॥ अर्थ : हे जीव ! चारगतिरूप अनन्त दुःख की अग्नि में जलते हुए महाभयङ्कर भववन में अमृतकुण्ड के समान जिनवाणी का तू सेवन कर ॥१०२॥ विसमे भवमरुदेसे, अणंतदुहगिम्ह तावसंतत्ते । जिणधम्मकप्परुक्खं, सरसु तुमं जीव सिवसुहदं ॥१०३॥ अर्थ : हे जीव ! अनन्त दुःख रूप ग्रीष्म ऋतु के ताप से सन्तप्त और विषम ऐसे संसाररूप मरुदेश में शिवसुख को देनेवाले जिनधर्म रूपी कल्पवृक्ष को तू याद कर ॥१०३॥ किंबहुणा जिणधम्मे, जइयव्वं जह भवोदहिं घोरं। लहु तरिउमणंतसुहं, लहइ जिओ सासयं ठाणं ॥१०४॥ अर्थ : ज्यादा कहने से क्या फायदा ! भयङ्कर ऐसे भवोदधि को सरलता से पारकर अनन्त सुख का शाश्वत स्थान जिस प्रकार से प्राप्त हो, उस प्रकार से जिनधर्म में यत्न करना चाहिए।

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