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वैराग्यशतक
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असह्य है। तेरा क्या होगा, यह हम नहीं जानते हैं ॥९३॥ अथिरेण थिरो समलेण निम्मलो परवसेण साहीणो। देहेण जइ विढप्पइ धम्मो ता किं न पज्जत्तं ॥१४॥
अर्थ : अस्थिर, मलिन और पराधीन देह से स्थिर, निर्मल और स्वाधीन धर्म की प्राप्ति हो सकती हो तो तुझे क्या प्राप्त नहीं हुआ ? ॥९४॥ जह चिंतामणिरयणं, सुलहं न होइ तुच्छ विहवाणं । गुण विहव वज्जियाणं, जियाण तह धम्मरयणं पि ॥९५॥
अर्थ : जिस प्रकार तुच्छ वैभववाले गरीब को चिन्तामणि रत्न सुलभ नहीं होता है, उसी प्रकार गुणवैभव से दरिद्र व्यक्ति को भी धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति नहीं होती है ॥९५॥ जह दिट्ठीसंजोगो, न होइ जच्चंधयाण जीवाणं । तह जिणमयसंजोगो, न होइ मिच्छंधजीवाणं ॥९६॥
अर्थ : जन्म से अन्धे जीव को जिस प्रकार दृष्टि का संयोग नहीं होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व से अन्धे बने हुए जीव को भी जिनमत का संयोग नहीं होता है ॥९६॥ पच्चक्खमणंत गुणे, जिणिंदधम्मे न दोसलेसोऽवि । तहविहु अन्नाणंधा, न रमंति कयावि तम्मि जिया ॥१७॥
अर्थ : जिनेश्वर के धर्म में प्रत्यक्ष अनंत गुण हैं और दोष नाम मात्र भी नहीं है, फिर भी खेद की बात है कि अज्ञान से अन्ध बने हुए जीव उसमें रमणता नहीं करते हैं ॥९७॥