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वैराग्यशतक
अर्थ : जहाँ वज्र की आग के समान दाह की पीड़ा है और भयङ्कर असह्य शीतवेदना है ऐसी सातों नरक पृथवियों में भी करुण शब्दों से विलाप करता हुआ अनन्त बार रहा है॥८५॥ पिय माय सयण रहिओ, दुरंत वाहिहिं पीडिओ बहुसो । मणुयभवे निस्सारे, विलविओ किं न तं सरसि ॥८६॥
अर्थ : साररहित ऐसे मानवभव में माता-पिता तथा स्वजनरहित भयङ्कर व्याधि से अनेक बार पीड़ित हुआ तू विलाप करता था, उसे तू क्यों याद नहीं करता है ? ॥८६॥ पवणुव्व गयण मग्गे, अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो। ठाणट्ठाणंमि समु-ज्झिऊण धण सयणसंघाए ॥८७॥
अर्थ : स्थान-स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है ॥८७॥ विधिज्जंता असयं जम्म-जरा-मरण-तिक्खकुंतेहिं। दुहमणुहवंति घोरं, संसारे संसरंत जिया ॥४८॥
अर्थ : इस संसार में भटकनेवाले जीव जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीक्ष्ण भालों से बिंधाते हुए भयङ्कर दुःखों का अनुभव करते हैं ॥८८॥ तहवि खणं पि कया वि हु अन्नाण भुअंगडंकिआ जीवा। संसारचारगाओ न य उव्वज्जति मूढमणा ॥८९॥