Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 27
________________ वैराग्यशतक अर्थ : अज्ञानरूपी सर्प से डसे हुए मूढ़ मनवाले जीव इस संसाररूपी कैद से कभी भी उद्वेग प्राप्त नहीं करते हैं ॥८९॥ कीलसि कियंत वेलं, सरीर वावीइ जत्थ पइ समयं । कालरहट्टघडीहिं, सोसिज्जइ जीवियंभोहं ॥ ९०॥ अर्थ : इस देहरूपी बावड़ी में तू कितने समय तक क्रीड़ा करेगा ? जहाँ से प्रति समय कालरूपी अरहट के घड़ों द्वारा जीवनरूपी पानी के प्रवाह का शोषण हो रहा है ॥९०॥ रे जीव ! बुज्झ मा मुज्झ, मा पमायं करेसि रे पाव ! । किं परलोए गुरु दुक्ख - भायणं होहिसि अयाण ? ॥ ९१ ॥ २६ अर्थ : हे जीव ! तू बोध पा ! मोहित न बन । हे पापी ! तू प्रमाद मत कर ! हे अज्ञानी ! परलोक में भयङ्कर दुःख का भाजन क्यों बनता है ? ॥९१॥ बुज्झसु रे जीव ! तुमं, मा मुज्झसु जिणमयंमि नाऊणं । जम्हा पुणरवि एसा, सामग्गी दुल्लहा जीव ! ॥९२॥ अर्थ : हे जीव ! तू बोध पा ! जिनमत को जानकर तू व्यर्थ ही मोहित न हो ! क्योंकि इस प्रकार की सामग्री की पुनः प्राप्ति होना दुर्लभ है ॥९२॥ दुलहो पुण जिणधम्मो, तुमं पमायायरो सुहेसी य । दुसहं च नरयदुक्खं, कह होहिसि तं न याणामो ॥९३॥ अर्थ : जिनधर्म की प्राप्ति दुर्लभ है । तू प्रमाद में आदरवाला और सुख का अभिलाषी है । नरक का दुःख

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