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वैराग्यशतक
अर्थ : जन्म-मरण के सैकड़ों परिवर्तन करते हुए इस जीव को बड़े कष्ट से मनुष्यजन्म मिलता है तब वह इच्छानुसार प्राप्त कर सकता है ॥६७॥
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तं तह दुल्लहलंभं, विज्जुलया चंचलं च मणुअत्तं । धम्मंमि जो विसीयइ सो काउरिसो न सप्पुरिसो ॥ ६८ ॥
अर्थ : उस दुर्लभ और विद्युल्लता के समान चंचल मनुष्यपना को प्राप्तकर जो धर्मकार्य में खेद करता है, वह क्षुद्र पुरुष कहलाता है, सत्पुरुष नहीं ॥६८॥ मणुस्स जम्मे तडिलद्धयंमि,
जिणिंद धम्मो न कओ य जेणं ।
तु गुणे जहधाणुक्कएणं, हत्था मलेव्वा य अवस्स तेणं ॥६९॥
अर्थ : धनुष की डोरी टूट जाने के बाद जिस प्रकार धनुर्धर को अपने हाथ ही घिसने पड़ते हैं, उसी प्रकार बिजली की चमक की भाँति मनुष्य जन्म प्राप्त होने पर भी जिसने जिनेश्वर के धर्म की आराधना नहीं की, उसे बाद में पछताना ही पड़ता है ॥६९॥
रे जीव निसुणि चंचल सहाव, मिल्हेविणु सयल वि बज्झभाव । नव भेय परिग्गह विविह जाल, संसारि अत्थि सुहुइंदयाल ॥७०॥