Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 19
________________ १८ वैराग्यशतक उत्ति य दमगुत्तिय, एस सवागुत्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुज्जो खलोत्ति अधणो धणवइत्ति ॥५९॥ अर्थ : यह जीव राजा और भिखारी भी बना है। चाण्डाल भी बना है और वेदपाठी भी बना है । स्वामी भी हुआ है और दास भी हुआ है। पूज्य भी बना है और दुर्जन भी बना है । धनवान भी बना है और निर्धन भी बना है ॥५९॥ नवि इत्थ कोइ नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिस - कय- चिट्ठो । अन्नुन्नरूववेसो नडुव्व परिअत्तए जीवो ॥ ६० ॥ अर्थ : अपने किए हुए कर्म के अनुसार चेष्टा करता हुआ यह जीव नट की तरह अन्य - अन्य रूप और वेष को धारण कर बदलता रहता है इसमें कोई नियम नहीं है (कि पुरुष मरकर पुरुष ही होता है ॥ ६० ॥ ) नरएसु वेयणाओ, अणोवमाओ असायबहुलाओ । रे जीव ! तए पत्ता, अनंतखुत्तो बहुविहाओ ॥ ६१ ॥ अर्थ : हे जीव ! नरकगति में तूने अशाता से भरपूर और जिनकी कोई उपमा न दी जा सके, ऐसी वेदनाएँ अनन्तबार प्राप्त की है ॥६१ ॥ देवत्ते मणुअत्ते पराभिओगत्तणं उवगएणं । भीसणदुहं बहुविहं अनंतखुत्तो समणुभूयं ॥६२॥ अर्थ : देव और मनुष्य भव में भी पराधीनता के कारण अनेक प्रकार का भयङ्कर दुःख अनन्तबार सहन

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