Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 18
________________ १७ वैराग्यशतक धी धी धी संसारं, देवो मरिऊण जं तिरी होइ। मरिऊण रायराया, परिपच्चइ निरयजालाहिं ॥५५॥ अर्थ : उस संसार को धिक्कार हो, धिक्कार हो, जिस संसार में देव मरकर तिर्यंच बनते हैं और राजाओं के राजा मरकर नरक की ज्वालाओं में पकाए जाते हैं ॥५५।। जाइ अणाहो जीवो, दुमस्स पुष्पं व कम्मवायहओ। धणधन्नाहरणाई, घर सयण कुटुंबमिल्हे वि ॥५६॥ ___ अर्थ : धन, धान्य, अलङ्कार, घर, स्वजन और कुटुम्ब के मिलने पर भी कर्मरूपी पवन से आहत वृक्ष के पुष्प की तरह अनाथ हो जाता है ॥५६॥ वसियं गिरीसु वसियं दरीसु वसियं समुद्द मज्झंम्मि । रुक्खग्गेसु य विसयं संसारे संसरंतेणं ॥५७॥ ___ अर्थ : संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा पर्वत पर बसी है, गुफा में बसी है, समुद्र में बसी है और वृक्ष के अग्र भाग पर भी रही है ॥५७॥ देवो नेरइउ त्ति य, कीडपयंगो त्ति माणुसो एसो । रुवस्सी य विरूवो, सुहभागी दुक्खभागी य ॥५८॥ __ अर्थ : यह जीव देव बना है, नारक बना है, कीड़ा और पतङ्गा भी बना है और मनुष्य भी बना है। सुन्दर रूपवाला और खराब रूपवाला भी बना है। सुखी भी बना है और दुःखी भी बना है ॥५८॥

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