Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 16
________________ वैराग्यशतक जीवेण भवे भवे मिलियाइं देहाइं जाई संसारे । ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा अणतेहिं ॥४७॥ अर्थ : इस संसार में इस जीव ने भवोभव में जो शरीर प्राप्त किए हैं, उनकी संख्या अनंत सागरोपम से भी नहीं हो सकती है ॥४७॥ नयणोदयं पि तासिं, सागर सलिलाओ बहुयरं होई । गलियं रुयमाणीणं, माउणं अन्नमन्नाणं ॥४८॥ १५ अर्थ : अन्य - अन्य जन्मों में रोती हुई माताओं की आँखों में से जो आँसू गिरे हैं, उसका प्रमाण सागर के जल से भी अधिक हो जाता है । जं नरए नेरइया, दुहाई पावंति घोरणंताई । तत्तो अनंतगुणियं, निगोयमज्झे दुहं होइ ॥ ४९ ॥ अर्थ : नरक में नारक जीव जिन घोर भयङ्कर अनन्त दुःखों को प्राप्त करते हैं, उससे अनन्तगुणा दुःख निगोद में होता है ॥४९॥ तंमि वि निगोअ मज्झे, वसिओ रे जीव ! विविह कम्मवसा । विसहंतो तिक्खदुहं, अनंत पुग्गल परावत्ते ॥५०॥ अर्थ : हे जीव ! विविध कर्मों की पराधीनता के कारण उस निगोद के मध्य में रहते हुए अनंत पुद्गल परावर्त काल तक तीक्ष्ण दुःखों को तूने सहन किया है ॥५०॥

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