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वैराग्यशतक खोदने के लिए समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार मृत्यु के नजदीक आने पर तू धर्म कैसे कर सकेगा ? ॥३५॥ रूवमसासयमेयं विज्जुलया-चंचलं जए जीयं । संझाणुरागसरिसं, खणरमणीयं च तारुण्णं ॥३६॥
अर्थ : यह रूप अशाश्वत है। विद्युत् के समान चंचल अपना जीवन है। संध्या के रंग के समान क्षण मात्र रमणीय यह यौवन है ॥३६॥ गयकण्णचंचलाओ, लच्छीओ तियस चावसारिच्छं। विसयसुहं जीवाणं, बुज्झसु रे जीव ! मा मुज्झ ॥३७॥
अर्थ : हाथी के कान की तरह यह लक्ष्मी चंचल है। जीवों का विषयसुख इन्द्रधनुष के समान चपल है । हे जीव ! तू बोध पा और उसमें मोहित न बन ॥३७॥ जह संझाए सउणाण संगमो जह पहे अ पहियाणं । सयणाणं संजोगा, तहेव खणभंगुरो जीव ! ॥३८॥
अर्थ : हे जीव ! संध्या के समय में पक्षियों का समागम और मार्ग में पथिकों का समागम क्षणिक है, उसी तरह स्वजनों का संयोग भी क्षणभंगुर है ॥३८॥ निसाविरामे परिभावयामि, गेहे पलित्ते किमहं सुयामि । डझंतमप्पाणमुविक्खयामि,जंधम्मरहिओदिअहा गमामि ॥३९॥
अर्थ : रात्रि के अन्त में मैं सोचता हूँ कि जलते हुए घर में मैं कैसे सोया हुआ हूँ ? जलती हुई आत्मा की मैं क्यों