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वैराग्यशतक
को तू भोगता है, तो फिर दीन मुखवाला क्यों बनता है ?
॥२७॥
बहु आरंभविदत्तं, वित्तं विलसंति जीव सयणगणा । तज्जणियपावकम्मं, अणुहवसि पुणो तुमं चेव ॥२८॥
अर्थ : हे जीव ! बहुत से आरंभ समारंभ से उपार्जित तेरे धन का स्वजन लोग भोग करते हैं परंतु उस धन के उपार्जन में बंधे हुए पापकर्म तुझे ही भोगने पड़ेंगे ॥२८॥
अह दुक्खियाइं तह भुक्खियाई जह चिंतियाईं डिंभाईं । तह थोवं पिन अप्पा, विचितिओ जीव ! किं भणिमो ॥ २९ ॥
अर्थ : हे आत्मन् ! तुमने "मेरे बच्चे दुःखी हैं, भूखे हैं ?" इस प्रकार की चिंता की, परंतु कभी भी अपने हित की चिंता नहीं की ? अतः अब तुझे क्या कहें ? ॥२९॥ खणभंगुरं शरीरं, जीवो अन्नो य सासयसरूवो । कम्मवसा संबंधो, निब्बंधो इत्थ को तुज्झ ? ॥३०॥
अर्थ : यह शरीर क्षणभंगुर है और उससे भिन्न आत्मा शाश्वत स्वरूपी है। कर्म के वश से इसके साथ संबंध हुआ है, अतः इस शरीर के विषय में तुझे मूर्च्छा क्यों है ? ||३०|| कह आयं कह चलियं, तुमं पि कह आगओ कहं गमिही । अन्नुन्नं पि न याणह, जीव ! कुडुंबं कओ तुज्झ ? ॥३१॥
अर्थ : हे आत्मा ! यह कुटुंब कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तू भी कहाँ से आया और कहाँ जाएगा ? तुम