Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 10
________________ वैराग्यशतक तं किं पि नत्थि ठाणं, लोए वालग्गकोडिमित्तं पि । जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरंपरं पत्ता ॥२४॥ अर्थ : इस संसार में बाल के अग्र भाग के जितना भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने अनेक बार सुख-दुःख की परंपरा प्राप्त न की हो ॥२४॥ सव्वाओ रिद्धिओ, पत्ता सव्वे वि सयण संबंधा। संसारे ता विरमसु, तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ॥२५॥ अर्थ : संसार में सभी प्रकार की ऋद्धियाँ और स्वजन संबंध प्राप्त किये हैं, अतः यदि तो आत्मा को जानता है, उनके प्रति रहे ममत्व से विराम पा जा ॥२५॥ एगो बंधइ कम्म, एगो वहबंधमरणवसणाई। विसह इ भवंमि भमडइ, एगुच्चिय कम्मवेलविओ॥२६॥ अर्थ : यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है । अकेला ही वध, बंधन और मरण के कष्ट सहन करता है। कर्म से ठगा हुआ जीव अकेला ही संसार में भटकता है ॥२६॥ अन्नो न कुणइ अहियं, हियं पि अप्पा करेइ न हु अन्नो। अप्पकयं सुहदुक्खं, भुंजसि ता कीस दीणमुहो? ॥२७॥ अर्थ : अन्य कोई जीव अपना अहित नहीं करता है और अपना हित भी आत्मा स्वयं ही करती है, दूसरा कोई नहीं करता है । अपने ही किए हुए कर्मों को - सुखदुःख

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