Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 8
________________ वैराग्यशतक अर्थ : गाढ़ कर्म रूपी पाश से बँधा हुआ जीव इस संसार रूपी नगर की चार गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार की विडंबनाएँ प्राप्त करता है, यहाँ उसको शरण देनेवाला कौन है ? ॥१६॥ घोरंमि गब्भवासे, कमलमलजंबालअसुइ बीभच्छे। वसिओ अणंतखुत्तो, जीवो कम्माणु भावेण ॥१७॥ __ अर्थ : कर्म के प्रभाव से यह जीव वीर्य और मल रूपी कीचड की अशचि से भयानक ऐसे गर्भावास में अनंतीबार रहा है ॥१७॥ चुलसीई किर लोए, जोणीणं पमुहसयसहस्साइं। इक्किक्क्रमि अ जीवो, अणंतखुत्तो समुपन्नो ॥१८॥ अर्थ : इस संसार में जीव को उत्पन्न होने के लिए चौरासी लाख योनियाँ हैं । इन सब में यह जीव अनंती बार पैदा हुआ है ॥१८॥ मायापियबंधूहि, संसारत्थेहिं पूरिओ लोओ। बहुजोणिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च ॥१९॥ अर्थ : इस संसार में रहे हुए और चौरासी लाख योनि में बसे हुए माता-पिता व बंधु द्वारा यह लोक भरा हुआ है, परंतु रक्षण करनेवाला या शरण देनेवाला कोई नहीं है ॥१९॥ जीवो वाहि विलुत्तो, सफरो इव निज्जले तडप्फडइ । सयलो वि जणो पिच्छइ, को सक्को वेयणाविगमे ॥२०॥

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