Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Purvacharya Maharshi, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ वैराग्यशतक दोनों परस्पर यह जानते नहीं हो तो यह कुटुंब तुम्हारा कहाँ से? ॥३१॥ खणभंगुरे सरीरे, मणुअभवे अब्भपडल सारिच्छे । सारं इत्तियमेत्तं, जं किरइ सोहणो धम्मो ॥३२॥ अर्थ : बादल के समूह समान इस मानवभव में और क्षणभंगुर इस देह के विषय में जो अच्छा धर्म हो, इतना ही मात्र सार है ॥३२॥ जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो ! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो ॥३३॥ ___ अर्थ : जन्म दुःखदायी है, वृद्धावस्था दुःखदायी है, संसार में रोग और मृत्यु हैं । अहो ! यह संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी पीड़ा का अनुभव करते हैं ॥३३।। जाव न इंदिय हाणी, जाव न जररक्खसी परिप्फुरइ । जाव न रोगवियारा, जाव न मच्चू समुल्लियइ ॥३४॥ अर्थ : जब तक इन्द्रियों की हानि नहीं हुई, जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी प्रगट नहीं हुई, जब तक रोग के विकार पैदा नहीं हुए और जब तक मृत्यु नहीं आई है, तब तक हे आत्मा ! तू धर्म का सेवन कर ले ॥३४॥ जह गेहंमि पलित्ते, कूवं खणिउंन सक्कए कोई। तह संपत्ते मरणे, धम्मो कह कीरए जीव ॥३५॥ अर्थ : हे जीव ! घर में आग लगी हो तब कोई कुआँ

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58