Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ श्वेताम्बर जैनग्रन्थद्रव्यानुयोग तर्कणा में पर्याय का स्वरूप -डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी द्रव्य विचार जैन-धर्म का प्रधान विचार है। द्रव्य के ज्ञान के बिना किसी को भी जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः कहा भी गया है कि मोक्षाभिलाषीजनों को षट् द्रव्यों का ज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिए जैन दर्शन में द्रव्यों के ज्ञान के कारण द्रव्यानुयोग की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गयी है।' द्रव्यानुयोग के इस महत्त्व को देखते हुए तपोगच्छ गगनमण्डल मार्तण्डश्री विनीतसागरजी के मुख्य शिष्य द्रव्यविज्ञाननागर, सकलगुणसागर श्री भोजसागर ने विक्रम संवत 1500 के आसपास इस ग्रन्थ की रचना की। पन्द्रह अध्यायों में विरचित इस ग्रन्थ में लेखक ने द्रव्य, गुण और पर्याय का विस्तार से विवेचन किया है। द्रव्यानुयोगतर्कणा की रचना के उद्देश्य के बारे में ग्रन्थकार ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि-''आत्मोपकृतये कुर्वे द्रव्यानुयोगतर्कणा।'' 2 . अर्थात् आत्मा के उपकार के लिए जीव-अजीव आदि द्रव्यों को जानकर संसारसागर से जीव के उद्धार के लिए मैं इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थ की रचना करता हूं। द्रव्यानुयोग तर्कणा में द्रव्य, गुण और पर्याय की सांगोपांग विवेचना हई है। विषय की दृष्टि से पर्याय की विवेचना यहां अभीष्ट है। पर्याय को परिभाषित करते हुए राजवार्तिक में कहा गया है, "परि समन्तादायः पर्यायः'' अर्थात् जो सब और से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। अर्थात् परिवर्तन का नाम पर्याय है। पर्याय का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पर्याय का स्थान द्रव्य है। कहा भी गया है-''गुणपर्यायः स्थानमेकरूपं सदापि यत् ।'4 अर्थात् गुण, पर्याय जब भी होंगे तब द्रव्य में ही होंगे। पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट भी पर्याय को इसी रूप में स्वीकार करते हुए कहते हैं "Modes has no independent existence. It always depends upon substance." । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANTIVIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII IIV 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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