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करता है। महान मनोवेत्ता सिगमंड फ्रायड के लिबिडो सिद्धान्त की यद्यपि यहां उपेक्षा नहीं की गयी है। क्रियाएं काम-प्रेरित हो सकती हैं लेकिन क्रियाओं का संचालक भाव-जगत होता है। काम की भी एक सीमा रहे कि वह स्वास्थ्य और अर्थ में बाधा न बनें। जो स्वास्थ्य और अर्थ की भी उपेक्षा करके चार्वाक्वादी बनने की कोशिश करते हैं, खाने-पीने और मौज को ही जीवन का लक्ष्य स्वीकार कर लेते हैं उनके लिए शांति का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि इन्द्रिय सुखों की पराधीनता से भगंदर, वात, धातु-क्षय आदि अनेक दोष घेर लेते हैं। जैसे अग्नि ईंधन से, महासमुद्र नदियों से एवं यमराज सभी प्राणियों को मारकर भी तृप्त नहीं होता वैसे ही कामना कभी आसेवन से तृप्त नहीं होती। ये तो सदा अतृप्ति को ही उत्तेजित करते हैं।'
जहां पर शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह के स्वास्थ्य का कोई आश्वासन नहीं, समाज और परिवार से जुड़ी जिम्मेदारियों के निर्वहन करने के लिये अर्थ को कोई आधार नहीं, वहां काम-भोगों के दुःख को न जानने वाले व उनमें अतिगृद्धता को न त्यागने वालों के जीवन में पश्चात्ताप व दुःख ही शेष रह जाता है। रोने की अमरता का वरदान उनकी सांसों को मिल जाता है। यहां तक कि आकुलतावश वह शयन-काल में शयन, भोजन काल में भोजन तक करने की स्थिति में नहीं आ पाता। दो दिशाएं
दो तरह की स्थितियां होती हैं—1. आपात् भद्रता 2. परिणाम भद्रता। आपात् भद्रता का तात्पर्य है आसेवन के समय तो जो बहुत सुखकर, प्रियकर प्रतीत होता है लेकिन परिणाम में वह बहुत विरस होता है, कटु परिणाम देने वाला होता है। आपात् भद्रता की स्थिति में जीए गए एक क्षण की कीमत कई बार व्यक्ति को जीवन भर चुकानी पड़ जाती है। विपाक फल इसका उदाहरण है। खाने में स्वादु, देखने में सुन्दर लेकिन परिणाम-मृत्यु । मूल्यों का मनन करने वाला, मूल्यों को जीने वाला कभी इस आपात् भद्रता में उलझ नहीं सकता।
परिणाम-भद्र का तात्पर्य है- आसेवन के प्रारम्भ में भले कुछ नीरस लगे लेकिन उसका परिणाम बहुत मधुर आता है। जैसे कि शान्त रस । इसका जैसे-जैसे पान किया जाता है उसकी सरसता बढ़ती जाती है। क्रोध, आदि संवेगों, कषायों को असफल करने से जो परिणाम आता है, जिस अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होता है-उसकी कल्पना भी क्रोधादि को सफल करने वाले अशांत लोगों को नहीं हो सकती। इसीलिए आचार-मीमांसा से उत्पन्न संताप तो फिर भी कादाचितक होते हैं। लेकिन कामजनित संताप दीर्घकालिक होते हैं। शोक, खेद, क्रोध, अश्रुपात, पीड़ा, परिताप आदि अवस्थाएं उसी से उत्पन्न होती है। कामात पुरुष वैर को बढ़ाता है।" इष्ट अप्राप्ति की स्थिति में आकांक्षा से क्रंदन करता है। नष्ट हो जाने पर शोक से क्रंदन करता है। कामकामी की स्थिति को व्यक्त करते हए कहा है
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANI
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