Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 116
________________ में समान रूप से नहीं रहता है, तारतम्य रहता है। तारतम्य का आधार है आवरणों की अल्पता और बहलता | अतः संख्या समान होने पर भी विकास की अपेक्षा से अन्तर रहता है। क्वान्टिटि सम होने पर भी क्वालिटी में बहुत बड़ा अन्तर रह सकता है। मतिज्ञान के चार प्रकार हैं- 1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. धारणा प्रकारान्तर से स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान भी मतिज्ञान के ही प्रकार हैं। धारणात्मक ज्ञान का नाम संस्कार है, उसके उद्बोध अर्थात् जागरण से (तत्) शब्द वाच्यमति ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। अतः जातिस्मृति उसका एक प्रकार है। जाति स्मरण के दो प्रकार है- 1. निसर्गज और 2. निमित्तज।। ___ मति के आवश्यक आवरणों का विलयीकरण होने से जन्मान्तर के संस्कारों का सहज ही स्मरण हो जाता है, यह नैसर्गिक जाति स्मृति है और बाह्य-प्रेरणा से प्रेरित होने पर पूर्व संस्कारों का स्मरण होना निमित्तज जातिस्मृति है। - पूर्वजन्म का संज्ञान किया जा सकता है, इस शक्यता के प्रतिपादन में तीन हेतुओं का उल्लेख है:- 1. स्व-स्मृति 2. पर-व्याकरण 3. दूसरों के पास सुनना। गुरुदेव श्रीतुलसी ने इन्हीं निमित्त बीजों को अत्यंत सरस सुबोध भाषा में अभिव्यक्त किया है : स्वयं स्वयं की जाति स्मृति से अथवा ज्ञानी के मुख से सुनज्ञात हुआ संस्मरणशील मैं, सुख का, दुःख का वरणशील मैं, दिग् दिगन्त संचरणशील मैं, मैं उपपात मरणधर्मा हूं, कृतकर्मा हूं, मैं अतीत में था, अब हूं, भविष्य में बना रहूंगा, सोऽहं सोऽहं का संज्ञानी वही प्रत्यभिज्ञा सन्धानी ॥ आधुनिक परामनोवैज्ञानिकों ने पूर्वजन्म की सहज स्मृति से संबंधित अनेक घटनावलियों का संग्रह किया है और कर रहे हैं। जैन सिद्धान्त और जैन साहित्य में इस प्रकार की अनेक घटनाओं का उल्लेख है। 1. स्वस्मृति-कपिल (दासी) पत्नी की इच्छापूर्ति के लिये दो मासा सोना लाने रात्रि में निकल पड़ा। आरक्षकों ने इसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रातः राजा प्रसेनजित के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने रात में अकेले घूमने का कारण जानना चाहा। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NI TI IMW 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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