Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 126
________________ पर्यावरणीय चिन्तन पर विमर्श के अनन्तर यह स्पष्ट हुआ कि पर्यावरण संरक्षण का संकट मानस और नीति बोध के संकट काल की बहिर्गत प्रव्यक्ति है। इसके अर्थबोध की अवधारणा में अब कोई ऐसी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए जिससे मात्र यह समझा जाये कि मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ है, शेष सब भोग्य है। पर्यावरण वन्य प्रजातियों, मानव निर्मित कुरूपताओं और प्रदूषण से जुड़ा एक मसला भी है। ये इसके अहम हिस्से अवश्य हैं पर मुख्य रूप से यह संकट हम सब जीवधारियों से जुड़ा है और इस परिहास से जुड़ा है कि जद्दो-जेहद में हमारे कार्य-कलापों की सीमारेखा नीति बोध की सीमाओं में रहनी आवश्यक है। आचार्य महाप्रज्ञ प्रत्येक प्राणी की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास करते हैं, मिट्टी, पानी, वनस्पति आदि सभी जीव हैं और उनके अस्तित्व को स्वीकार करना स्वयं के अस्तित्व को स्वीकार करना है, दूसरों के अस्तित्व उपस्थिति, कार्य और उपयोगिता को स्वीकार करने से ही पर्यावरण संरक्षण और संतुलन की बात सोची जा सकती है। संगोष्ठी में आगम एवं अन्य साहित्य पर भी सुरुचिपूर्ण एवं गम्भीर चिन्तन हआ। संगोष्ठी के निष्कर्ष के रूप में यह बात उभरकर सामने आई है कि अर्थशास्त्रीय चिन्तन में व्यक्ति को केन्द्र में रखकर सोचा जाए, क्योंकि उसे परिधि में रखने से ही आर्थिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सृष्टि में संतुलन है। दूर जीव जंतु का सृष्टि में होने का एक अर्थ है । यह अर्थ सृष्टि संतुलन की व्याख्या करता है। सार्थक में व्यर्थ की मान्यता सृष्टि संतुलन को बिगाड़ रही है। व्यक्ति हर प्राणी के स्वतंत्र अस्तित्व को केन्द्र में रखकर सरल, संयमपूर्ण एवं स्वैच्छिक सादगीयुक्त जीवनशैली अपनाये तो संतुलन स्थापित किया जा सकता है। अन्त में संगोष्ठी में महावीर का अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि विषयों पर स्वतंत्र संगोष्ठियों के आयोजन का निर्णय हुआ जिससे इन विषयों पर समग्र विचार ही नहीं बल्कि उन विचारों पर आधारित ढ़ांचा भी तैयार किया जा सके। कार्यशाला उच्च शिक्षा में मूल्यों का उन्नयन (15-16 मई, 2001) मूल्यविहीन शिक्षण की संकल्पना तो नहीं की जा सकती, किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यों की अवनति पर शिक्षा सम्बन्धी आयोगों एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति में चिन्ता व्यक्त की है और शिक्षा में वैश्विक एवं शाश्वत मूल्यों को समाविष्ट करने पर बल दिया गया है। उच्च-शिक्षा में मूल्यों के प्रोत्साहन देने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई योजनाएं बनाईं और उन्हें क्रियान्वित भी किया, किन्तु इन प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करणीय शेष है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIMIT INITII III 121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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