Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 117
________________ कपिल ने सच-सच बता दिया । उसकी सरलता और सत्यता से प्रभावित नृप ने उसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा। कपिल ने कहा- मुझे सोचने के लिये कुछ अवकाश चाहिये । राजा - जैसे तुम्हारी इच्छा । कपिल — एकान्त शान्त वनिका में जा बैठा । चिन्तन चला। दो मासा से करोड़ों तक बढ़ा परन्तु मन नहीं भरा। दो मासा कयं कज्जं, कोडि-ओवि न निट्यिठयं । कपिल का चित्त आन्दोलित हो उठा, चिन्तन का प्रवाह मुड़ा, मन विरक्ति से भर गया और चिन्तन की गहराई में डुबकियां लगाते-लगाते उसे जाति-स्मृति ज्ञान हो गया और कपिल स्वयंबुद्ध बन गया । सुश्रुत संहिता में यह निर्दिष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति पूर्वजन्म में शास्त्रों के अभ्यस्त होते हैं तथा उनका अन्तःकरण शास्त्रज्ञान से भावित होता है, उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है। 2. पर व्याकरण-आप्त पुरुषों द्वारा पूर्वजन्मों की स्मृति करवाने से भी जाति - स्मृति की प्राप्ति हो जाती है । इस सन्दर्भ में चूर्णिकार एवं वृत्तिकार ने गौतम स्वामी का नाम उल्लेख किया है : --- 112 भावितं पूर्वदेहेषु सततं शास्त्र बुद्धयः । भवन्ति सत्वभूयिष्ठाः पूर्वजाति स्मराः नराः ॥ गौतम ने भगवान महावीर से पूछा भंते! मुझे कैवल्य ज्ञान क्यों नहीं हो रहा है? भगवान ने कहा—गौतम ! तेरा मेरे प्रति अत्यधिक अनुराग है, इसीलिये । गौतम ――― - मेरा यह स्नेह किस कारण से है ? भगवान ने कहा — गौतम ! तुम्हारा मेरे साथ लम्बे समय तक संसर्ग रहा है। तुम मेरे चिर परिचत हो, इस वाणी को सुनकर गौतम को विशिष्ट दिशा गमन में किस दिशा से कहां से आया हूं? आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ । 3. दूसरों के पास सुनना - बिना पूछे ही किसी अतिशय ज्ञानी के द्वारा स्वतः निरूपित तथ्य को सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान प्राप्त कर लेता है 'अन्येषामन्तिके श्रुत्वा' अर्थात् तीर्थंकर के अतिरिक्त जो अन्य केवली, मनः पर्यवज्ञानी, अविघज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नव-पूर्वी, आठ पूर्वी, आदि से लेकर आचारधर, सामायिकधर, श्रावक या कोई सम्यग् दृष्टि से सुनकर पूर्वजन्म का स्मरण होना । पूर्वजन्म के स्मृति के निमित्तकों का विश्लेषण आचारांग भाष्य में इस प्रकार मिलता हैः(1) मोहनीय कर्म का उपशम । (2) अध्यवसानशुद्धि (लेश्या शुद्धि) (3) ईहा-अपोह-मार्गणा - गवेषणा Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 www.jainelibrary.org

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