Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 107
________________ अखण्ड मानवता का आन्दोलन-अणुव्रत -प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र जिनधर्म के 24वें तीर्थङ्कर भगवान महावीर ने द्विविध धर्म का प्रवचन किया हैआगारिक एवं अनागारिक । अगार का अर्थ होता है घर (गृह), अतः संज्ञा से ही सुस्पष्ट हो जाता है कि आगारिक धर्म का विधान घर वालों अथवा गृहस्थों के लिये था । इन गृहस्थों को ही श्रावक भी कहा गया है। अतएव आगारिक धर्म को ही श्रावक धर्म एवं श्रावकाचार भी कहा गया है। इस धर्म में द्वादश व्रतों की सर्वोपरि प्रतिष्ठा है जिनका परिपालन प्रत्येक गृहस्थ का अनिवार्य कर्त्तव्य है। जैन-धर्म के प्रतिष्ठित ग्रंथ द्वादशाङ्गी का सातवाँ अंग 'उवासकदसाओ' इसी श्रावक धर्म की व्याख्या करता है। ब्राह्मणग्रंथों में भी वानप्रस्थियों के दो सम्प्रदायों की चर्चा मिलती है - शालेय तथा यायावर। शालेय वानप्रस्थी शाला अथवा आश्रम बना कर किसी स्थान पर स्थायी रूप से रहते थे जबकि यायावर वानप्रस्थी निरन्तर सञ्चरणशील थे। 'चरैवेति' ही उनके जीवन का मूलमंत्र था। इस प्रकार, वैदिक परम्परा में जहां धर्माचरणलीन वानप्रस्थियों के लिये भी शाला अथवा अगार का विधान है वहां आर्हत परम्परा में साधु-साध्यिवों के लिये अगार का विधान कत्तई नहीं है। साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका ये चार प्रमुख अंग हैं जिनशासन के । इसी समन्वित रूप को धर्मतीर्थ भी कहा जाता है। इनमें भी साधु-साध्वियों की अपेक्षा श्रावक-श्राविकाओं के आचार का अधिक महत्त्व है। संभवतः इसलिये कि अनागार की स्थिति भी अगार के अनन्तर ही आती है | महाकवि कालिदास भी गृहस्थ धर्म को समस्त आश्रमों की आधारशिला मानते हैं। श्रावकाचार-परम्परा जैनधर्म के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य एवं प्रतिष्ठित है। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, हरिभद्र, अभयदेव, समन्तभद्र, 102 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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