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इस प्रकार भगवान् महावीर ने ही श्रमणों तथा श्रावकों के लिये पृथक् आचार व्यवस्थित किया । भगवान् महावीर जानते थे कि श्रमण अपने नियमानुपालन एवं कठोर तप आदि के कारण सामान्य गृहस्थों की तुलना में अधिक शक्तिमान् है । उनकी आचरणक्षमता भी गृहस्थों अथवा श्रावकों से अधिक है । फलतः श्रमणों को महाव्रती तथा गृहस्थों को अणुव्रती कहा गया। इस प्रकार महाव्रत पर्याय बन गया अनागारिक धर्म तथा अणुव्रत आगारिक धर्म का ।
महाव्रतियों अर्थात् श्रमण श्रमणियों के लिये रत्नत्रय की सिद्धि से मोक्ष का विधान बताया गया। ये रत्नत्रय हैं— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र | अणुव्रतियों अथवा श्रावकों के लिए भगवान् महावीर ने बारह व्रतों का विधान किया। यही बारह व्रत जिनशासन में श्रावकाचार के मेरुदण्ड माने जाते हैं। चूंकि श्रावक गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले, साथ ही साथ श्रमणोपासक भी होते हैं अतएव वर्तमान तेरापंथ-सम्प्रदाय में श्रावकाचार पर ही अधिक जोर दिया गया है। विशेषतः अणुव्रत आन्दोलन के सूत्रधार आचार्य तुलसी एवं दशमाचार्य महाप्रज्ञजी ने गृहस्थों के धर्माचरण को विशेष महत्त्व दिया है। क्योंकि गृहस्थों के घरों में यदि धर्मदेशना एवं धर्माचरण प्रतिष्ठित होंगे तो उन घरों से आने वाले श्रमण एवं श्रमणियाँ स्वतः आत्मदीप्त होंगे। और यदि वे अनागारिक धर्म में दीक्षित नहीं भी होते, गृहस्थ ही बने रहते हैं तो भी स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकने में समर्थ होंगे।
श्रावक का मूल अर्थ हैं - शास्त्रों को सुनने वाला परन्तु आचार्य तुलसी ने इस शब्द के अभिप्राय में विस्तार करते हुए बताया कि श्रावक का अर्थ है श्रावकाचार का परिपालक व्यक्ति। इस प्रकार आचार्य के मन्तव्यानुसार श्रावक को शास्त्रों का श्रोता होने के साथ ही साथ, आगारिक द्वादशव्रतों का पालक भी होना चाहिए ।
जैन-धर्म प्रारम्भ से ही अत्यन्त व्यावहारिक रहा है। धर्म-साधना एवं जीवन में पवित्रता जैन-धर्म के ये दो प्रमुख अंग हैं। इनमें से प्रथम की चरितार्थता तो सम्भव है साधुसाध्वियों से तथा दूसरे की गृहस्थों से । आचार्य तुलसी तथा महाप्रज्ञ - दोनों ही जैन धर्म - दर्शन एवं जीवनाचार पद्धति के तलस्पर्शी ज्ञाता एवं व्याख्याता हैं तथापि दोनों आचार्य इस बिन्दु पर सहमत प्रतीत होते हैं कि युग के परिवर्तन से धार्मिक देशनाओं के सिद्धान्त एवं व्यवहार में भी परिवर्तन होता है। दोनों ही आचार्य अत्यन्त उदारवादी हैं तथा जैनधर्म की मान्यताओं को वर्तमान कालखण्ड के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हैं ।
सम्भवतः इसी दृष्टि से आचार्य तुलसी श्रावकाचार के परम्परया प्राप्त द्वादश व्रतों को यथावत् स्वीकार करते हुए भी, उसको युगानुकूल बनाते हुए मात्र नौ बिन्दुओं में उपन्यस्त करते हैं
"खाद्यों की सीमा वस्त्रों का हो परिसीमन, पानी-बिजली का हो न अपव्यय धीमन् । यात्रा परिमाण, मौन, प्रतिदिन स्वाध्यायी, हर रोज विसर्जन अनासक्ति वरदायी । हो सदा संघ-सेवा सविवेक सफाई, प्रतिदिवस रहे इन नियमों की परछाई ॥"
तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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