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इनमें व्रताव्रती, धर्माधर्मी तथा संयमासंयमी को मध्यममार्गी माना गया है। संभवतः यही स्थिति श्रावकों की होती है जबकि श्रमण एवं श्रमणी पूर्णतः व्रती, धर्मी एवं संयमी होते हैं।
आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ-दोनों ही श्रावक-धर्म के तीन प्रमुख वैशिष्ट्य निर्दिष्ट करते हैं-श्रद्धाशीलता, विश्वास-पात्रता तथा प्रयोगधर्मिता। ये तीनों ही शब्द वृहद्व्याख्या-सापेक्ष हैं। परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि प्रत्येक नागरिक श्रद्धाशील हो, विश्वसनीय हो तथा प्रयोगधर्मी हो (प्रगतिवादी) तो निश्चय ही राष्ट्र स्वर्ग बन जाये। अपने ऋषभायण महाकाव्य में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं
नहीं भूख से पीड़ित कोई, कोई नहीं दरिद्र, सबको ही आवास सुलभ है, नहीं कहीं भी छिद्र। मन में व्याप्त नहीं सन्ताप, सम्यक् गतियुत शोणितचाप। ऊंच नीच का भेद नहीं है, सब नर एक समान, भेद व्यवस्थाकृत है केवल, सबका सम सम्मान। सूरज में है जो सौन्दर्य,
चन्द्रमा भी है उतना वर्य। यद्यपि यह सन्दर्भ भगवान् ऋषभ के सर्वोदयी उदात्त-साम्राज्य स्थापना का है परन्तु अणुव्रत आन्दोलन का लक्ष्य भी, न केवल भारत में प्रत्युत् समग्र विश्व में एक ऐसे ही साम्राज्य की स्थापना है।
___ आचार्य उमास्वाति ने कहा है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उत्तराध्यायनसूत्र में भी ज्ञान, दर्शन, चरित्र एवं तप को मोक्षमार्ग बताया गया है। इसी तरह भगवतीसूत्र में ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना तथा चरित्राराधना को मोक्षमार्ग निर्दिष्ट किया गया है। इसी को रत्नत्रय कहते हैं।
श्रावक की न्यूनतम अर्हता है- सम्यक् दर्शन, जिसका तात्पर्य है आत्मा की त्रैकालिक सत्ता में आस्था रखना। इस आस्था के भी तीन प्रमुख स्रोत हैं-देव, गुरु तथा धर्म । देव का अर्थ है जैन धर्म में प्रतिष्ठित चौबीस तीर्थङ्कर | गुरु का अर्थ है अनागारिक महाव्रत में पारंगत देशिक | धर्म का अर्थ है अहिंसा, संयम और तप । यदि श्रावक रत्नत्रय का अधिकारी न भी हो तो मात्र इस सम्यक दर्शन की सिद्धि से ही वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है अपने पुरुषार्थ से । यद्यपि जैनधर्म में भी परमात्मपद प्राप्ति को ही मोक्ष माना है। परन्तु यहां परमात्मा का अर्थ ईश्वर से नहीं प्रत्युत् आत्मस्वरूपोपलब्धि से है।
___ आचार्य तुलसी श्रमणसंघ एवं जिनशासन के समन्वित रूप को धर्मतीर्थ कहते हैं। संघ को परिभाषित करते हुए आचार्यश्री कहते हैं
लिङ्गभेदाच्चतुर्भेदो द्विधाऽयं व्रतभेदतः।
आचार्योऽधिपतिर्यत्र स संघः संघ उच्च्यते॥- संघषट्त्रिंशका | 106 AIIIIIIII IIIIII IIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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