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पुनर्जन्म और जाति स्मृति
- साध्वी जतनकुमारी कनिष्ठा'
हर चेतनाशील प्राणी में अपने अस्तित्व को जानने की जिज्ञासा रहती है कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूँ? कहां जाऊंगा?
हर भारतीय आस्तिक दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। आत्मा को एक शाश्वत सत्य के रूप में मानता है। कर्मलिप्त आत्मा का जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म होना निश्चित है। जन्म-मृत्यु की यह परम्परा तब तक चलती रहती है जब तक मोक्ष नहीं होता। जीव अपने प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्मांतर करता है, पुनर्जन्म कर्मसंगी जीवों के ही होता है। आयुष्य कर्म के अनुसार जीव नानाविध गतियों में भ्रमण करता है। पुद्गल परमाणु जीव में ऊंची-नीची, तिरछी-लम्बी और छोटी-बड़ी गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं। कभी नारक, कभी तिर्यंच, कभी मनुष्य और कभी देव बनता है।
राग और द्वेष से कर्मों का बंध होता है और कृतकर्म ही इस जन्म-मरण की परम्परा का निमित्त बनता है। भगवान महावीर ने कहा है अग्निग्रहीत क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं। 'कष्' का अर्थ है संसार । जो आत्मा को संसारोन्मुख बनाता है वह कषाय है । कषाय रस से भीगे हुए वस्त्र पर मजीठ का रंग लगता है और टिकाऊ होता है, वैसे ही क्रोधादि से भीगे हुए आत्मा पर कर्म-परमाणु चिपकते हैं।
महात्मा बुद्ध ने अपने पैर में चुभन वाले कांटे को पुनर्जन्म में किये हुए प्राणी-वध का विपाक बतलाकर पूर्वजन्म-पुनर्जन्म को स्वीकृत किया।
आस्तिक दार्शनिकों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि के लिये कुछ हेतु प्रस्तुत किये गये हैं(1) नवजात शिशु के अन्दर भी हर्ष, भय, शोक आदि के संस्कारों का होना
पुनर्जन्म की स्मृति है। 108 AIIIIIIIIII
MITI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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