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मन में उस दिन दूसरा ही मेला लगा था। यह निर्ग्रन्थ की जागृति का मेला था, भोग से योग की ओर मुड़ने के चिन्तन का मेला था, स्वयं को सिद्ध और बुद्ध बनाने हेतु श्रमण-पथ पर अग्रसर होने के संकल्प का मेला था।
_ऋषभ ने पुत्रों के बीच राज्यों का वितरण किया। भरत अयोध्या (विनीता) के राजा बने । बाहबली ने बहली-अंचल का शासन संभाला। राज्यभार स्वीकार करते समय भरत ने राजनीति-संबोध की याचना की। ऋषभ ने राज्य-संचालन के प्राण तत्व को निरूपित कियाशासक जनता से निग्रह शक्ति उधार लेता है। उसे जनता की पीड़ा के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। शासक शोषक न बने और न शासन व्यवसाय | सबको न्याय मिले। दर्बल पर सबल अत्याचार न कर पाये । सत्ता का अभिमान शासन को मलिन करता है। अजितेन्द्रिय शासक अंकहीन शून्य की तरह अर्थहीन और विफल होता है। संयत शासक धरती पर पुण्य-वर्षा करता है। निग्रह और अनुग्रह का संतुलन शासन को विपदा से मुक्त रखता है। अर्थलोलुप सचिव अनर्थ का कारण बनता है। यह उद्बोधन उस समय भरत के लिए था, आज भारत के लिए है।
ऋषभ अभिनिष्क्रमण हेतु उद्यत हए। उनके अतीन्द्रिय ज्ञान से आविर्भूत और उनके उपकारों से कृतज्ञ जनता उनके गृहत्याग की बात सुनकर अपने भविष्य के प्रति आशंकित हुई। लोगों ने संन्यास न लेने हेतु प्रार्थना के स्वर में उनके समक्ष अपनी युक्ति रखी
भोग मानव की प्रकृति है, फिर वहाँ संघर्ष क्यों? है समंजसता प्रकृति में फिर अहेतु अमर्ष क्यों?
अनय अविनय प्रभु-चरण के प्रति नहीं संभाव्य है, फिर लिखा क्यों जा रहा यह त्याग का नव काव्य है?
सर्ग 6, पृ. 95-96 ऋषभ ने उत्तर दियाभोग की सम्मोहिनी से चक्षु की द्युति रुद्ध है, आवरण को दूर करने, चेतना प्रतिबुद्ध है। इक्षु रसमय अनासेवित, सरसता सप्राण है
और सेवित विरस बनता, मात्र त्वक् निष्प्राण है। भोग भी आपात में प्रिय, मधुर मनहर कांत है, विरसता क्रमशः बढ़ाता, पाक उसका क्लांत है। त्याग की है विरल प्रतिमा, आदि में रसमुक्त है, दीर्घकालिक सेवना से, अतुल रस-संयुक्त है
सर्ग 6, पृ. 96-97
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MINS
INITIATI
V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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