Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 91
________________ बाहुबली का शौर्य ? उसके अपराजेय बल की बात भी अब कैसे किसी को बतलाऊँ? द्विविधा के द्वन्द्व ने भरत की चेतना को अवाक् कर दिया। मौन की भाषा ने युद्ध में अपना अर्थ • तलाशा। रणभेरी बजी। दोनों सेनायें आमने-सामने आ खड़ी हुईं। एक का अपनी चक्रशक्ति में विश्वास, दूसरे का अपने बाहु-बल में । अतिशय आवेश के साथ भरत की सेना ने बाहुबली की सेना पर आक्रमण किया। बाहुबली - तनय सिंहरथ ने आगे बढ़कर अपनी सेना के पलायन को रोका। उनके सिंहनाद से भरत की सेना भयभीत हुई तो सेनाधीश सुषेण सामने आये मगर विद्याधर अनिलवेग ने अपने विद्याबल से भरत की सेना को अवश कर दिया। दोनों योद्धाओं के बीच फिर वाणी के महासमर से उभय पक्षों में नये आवेश का संचार हुआ अनिलवेग बोला, सेनापति ! भरत- - सैन्य में तुम हो वीर, किन्तु नहीं देखा तुमने है सागर का परवर्ती तीर। दुर्बल जन को किया पराजित, यही विजय क्या सेनानाथ ! किया नहीं उपयोग शक्ति का, चले शून्य में दोनों हाथ ॥ 86 Jain Education International सर्ग 16, पृ. 256-257 सुषेण ने उत्तर दिया मौन करो अब अनिलवेग ! तुम, बहुत अनर्गल किया प्रलाप छलना की वेतरणी में रे ! कैसे धुल पाएगा पाप ? तुम क्या जानो चक्री का बल, और चक्र की शक्ति असीम । पारिजात का तुम्हें पता क्या, बहलि-धरा पर केवल नीम ॥ दोनों पक्षों में फिर प्रखर संघर्ष आरम्भ हुआ। हार और जीत का अनिमेष अभिनय चलता रहा। अनिलवेग और सिंहकर्ण ने अपने विद्याबल से प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया । अपनी सेना को पलायन उन्मुख देख भरत कोपानल से सुलगने लगे। उन्होंने अपने दिव्य शक्तिमय चक्र से अनिलवेग को मार डाला। इस दृश्य को देख विद्याधर रत्नारि क्रोधित होकर पवनवेग से अपनी विद्या-साधित गदा से चक्रीसेना को मथने लगे। हत्या करने वाला अपराधी माना जाता है, मगर युद्धभूमि में शत्-शत् -घाती वीरों का छत्र बन जाता है। व का विधान अज्ञेय है मगर आदमी का विधान भी तो ज्ञेय नहीं । दूसरे दिन भरतपुत्र सूर्ययशा और शार्दूल ने अपनी सेना की अग्रपंक्ति के ध्वंस में लगे विद्याधर-द्वय सुगति और मितकेतु को ललकारा। घात और प्रतिघात के बीच अनेक उतारचढ़ाव आए। अन्ततः शार्दूल के हाथों सुगति और सूर्ययशा के हाथों मितकेतु धराशायी हुए । नियति के अनगिनत दाँव हैं। कालचक्र के गिरि-गह्वर में छिपे भेदों को कहाँ कोई जान पाता तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 सर्ग 16, पृ. 257 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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