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हिंसाजन्य गलत प्रवृत्ति ठहराते हुए यह कहा गया है कि जो व्यक्ति मान के कारण, अधिक क्रोध के कारण, स्नेह अथवा भय के कारण स्वयं को फांसी पर चढ़ाता है वह घोर अन्धकार में रहता हुआ साठ हजार वर्षों तक नारकीय पीड़ा भोगता है।19
___ आत्म रक्षा के निमित्त हिंसा स्वीकार्य है अथवा नहीं? इस प्रश्न पर भी पराशर स्मृति में विचार किया गया है। स्मृति में यह कहा गया है कि देश के टूटने पर, विदेश में होने पर, रोगों एवं विपत्तियों में अपने शरीर की रक्षा प्राथमिक कर्तव्य है। आपातकाल आने पर शौच
और आचार की चिन्ता न करके पहले स्वयं का उद्धार आवश्यक है। उसके पश्चात् धर्माचरण करने का निर्देश स्मृतिकार ने किया है।20 देश रक्षार्थ युद्ध में वीरगति प्राप्त करना योग से युक्त संन्यासी की मृत्यु के समान माना गया है। यहां यह स्पष्ट है कि योद्धा का धर्म युद्ध के समय स्वरक्षा के साथ अपने दुश्मनों पर विजय प्राप्त करना है। अतएव लोकधर्म की दृष्टि से इसे उपयुक्त माना गया है, क्योंकि इससे निवृत्ति के पश्चात् धर्माचरण आवश्यक है।
अनजाने में हुई हिंसा के लिए पाप का निश्चय न हो जाने तक भोजन न करने का निर्देश ऋषि ने दिया है। 2 हिंसा हुयी है अथवा नहीं हुई है- ऐसी संशय की स्थिति में भी जब तक संशय की निवृत्ति न हो, तब तक बिना प्रमाद किए भोजन न करने तथा कृत्य को छुपाने का प्रयत्न न करने का निर्देश ऋषि ने किया है।23
पति-पत्नी, भाई-बान्धव आदि पारिवारिक सम्बन्धों में पारिवारिक हिंसा न हो, इस हेतु ऋषि ने कुछ व्यवस्थाएं सुझायी हैं। पति द्वारा पत्नी का त्याग, पत्नी द्वारा रोगी, दरिद्र
और मूर्ख पति का अपमान, बड़े भाई के होते छोटे भाई का विवाह आदि को दुष्कर्म माने गए24 जबकि पति के गुम हो जाने पर, मर जाने पर, संन्यास लेने पर, नपुंसक होने पर और पतित होने पर आदि स्थितियों में दूसरे पति का विधान स्मृतिकार ने किया है। इसी तरह कुबड़े, मूर्ख, विकलांग, नपुंसक बड़े भाई के रहते छोटे भाई के विवाह को भी दोषमुक्त माना गया है। पति के मरने पर बिना पुनर्विवाह किए ब्रह्मचर्य का पालन तथा पति के जीवनकाल में उसका अनुगमन उत्तम माना गया है। भ्रूण हत्या को निकृष्टतम मानते हुए इसे ब्रह्महत्या से भी अधिक जघन्य स्वीकृत करते हुए इसके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त को स्मृतिकार ने स्वीकार नहीं किया है।27
वर्तमान मानव अधिकार कानून में युद्ध, विप्लव अथवा अन्य संकटों के समय स्त्री, बच्चे और वृद्धों पर आक्रमण न करना तथा उनका बचाव मानव अधिकारों के अन्तर्गत माना गया है। पराशर स्मृति में ऋषि ने विप्लव में, युद्ध के समय में, अकाल में, जनसंहार के समय, बन्दी बनाए जाने के समय अथवा आतंककाल में स्त्री की रक्षा और उसकी देखभाल को कर्त्तव्य माना है।
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IIIIIIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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