Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ ऋषभ ममता के धागों को तोड़ चुके थे। रागमुक्त, मोह संवेदना से परे वे आत्मसाक्षात्कार हेतु अज्ञातवास के लिए चल पड़े धर्म के आकाश में रवि का नवोदय हो रहा, जागरण उस परम पद का, आज तक जो सो रहा। ध्यान कायोत्सर्ग मद्रा, मौन अन्तर्याप्त है, दिव्य आभा दिव्य आत्मा, लग रहा वह आप्त है। दिवस बीते जा रहे वह अग, अचल, अश्रांत है, भूख की जय, प्यास की जय, अन्तरात्मा शांत है चाह नहीं है, राह वहीं है, सत्य कहीं अस्पष्ट नहीं, शुद्ध चेतना के अनुभव में, प्रिय-अप्रिय का कष्ट नहीं। आत्मलीनता के मन्दिर में बाहर का विस्मरण हुआ, आत्मा में परमात्मा का, अनजाना-सा अवतरण हुआ। खड़े रहे छह मास, श्वास की गति लययुत अतिमंद हई, सक्रिय है चैतन्य, प्राण की बाह्य वृत्ति निस्पन्द हुई । सर्ग 6, पृ. 110, 115 लम्बी साधना और तप के बाद अन्तःदर्शन हुआ। चिन्तन में एक नया उच्छवास आया-- यह शरीर पुद्गल से परिचित, उपचित होता पा आहार, अपचित होता अनाहार से, पुद्गल का पुद्गल से प्यार। आत्मा की उपलब्धि अनुत्तर, हो शरीर धारण का अर्थ, इस शरीर की संरक्षा के हेतु अशन अतिशेष समर्थ। भोजन से तनु, तनु से होगा, धर्मतीर्थ का अथ अनुवृत्त, धर्मतीर्थ से वृत्त मनुज की, संस्कृति का वह हो इतिवृत्त । केवल कृश करना वपु को है, प्रस्फुट ही ऐकांतिक वाद, पोषण और तपस्या में ही, अनेकान्त-संभव संवाद। सर्ग 6, पृ. 116 धर्मचक्र प्रवर्तन का कार्य अभी शेष था। छह मास की तपस्या के बाद ऋषभ भिक्षा हेतु जनपद पर्यटन करते रहे | पर भिक्षुक और भिक्षा दोनों शब्द अब तक अश्रुत थे। लोग आरोहण हेतु अश्व और गज प्रस्तुत करते, मुक्ता-थाल व मणि-निचय की भेंट स्वीकार करने 74 AM SAMI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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